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Aarti Sirsat

Abstract

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Aarti Sirsat

Abstract

उन गलियों से गुजरने चली हूं

उन गलियों से गुजरने चली हूं

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मैं फिर उन गलियों

से गुजरने चली हूँ...।

दर्द देने वाले पर

ही फिर से मरने चली हूँ...।।

कातिल को ही अपना

हमसफर बनाने चली हूँ...।।

मैं फिर उन दर्दो को

गले लगाने चली हूँ...।

गमों के आसमां पर चाँद

तारों को गिनने चली हूँ...।

मैं धरती की हरयाली को

पतझड़ बनाने चली हूँ...।।

राह तो बडी ही बेकदर है,

राह को ही हमराह बनाने चली हूँ...।

रंगीन अपनी इस दुनिया को

मैं फिर से बैरंग करने चली हूँ...।।

झूठे वादे ही सही मगर सच

समझकर मैं निभाने चली हूँ...।

वो डूबा रहा है मुझे अपनी फरेबी आँखों में,

ओर मैं फिर डूबने चली हूँ...।।

मकसद पता नही इस दिल का क्या है,

मैं फिर इस दिल को तोडने चली हूँ...।

खुशियों का आलम बरबाद करके,

मैं फिर तन्हाई को अपना बनाने चली हूँ...।।

अपनी आँखों के पन्नों पर

मैं फिर से आँसू लिखने चली हूँ...।

भीगी भीगी सी इस दिल की जमीं

को रेगिस्तान बनाने चली हूँ...।।

मैं फिर उन गलियों

से गुजरने चली हूँ...।

दर्द देने वाले पर

ही फिर से मरने चली हूँ...।।

          



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