संवेदनाओं की मौत
संवेदनाओं की मौत
हँसते-हँसते एक दिन मैंने,
जीवन की सच्चाई को देखा।
रास्ते पर चलते-चलते,
एक जिंदगी को जाते देखा।
एक मनुष्य की आत्मा,
उसके देह को छोड़ रही।
अपने पंख फैलाने को,
जंजीरें अपनी तोड़ रही।
क्यों फिर भी बाकी मनुष्यों की आत्मा
उन्हें नहीं कचोट रही??
शायद इंसानों की भीड़ में आज,
इंसानियत की ही जगह नहीं।
धिक्कार है उन दिलों को आज,
जिनमें संवेदनाओं की ही जगह नहीं।
अपने स्वार्थ में आकर ही,
खुद को खुदा बना कर ही,
एक बात यह भुलाकर ही,
संवेदनाओं को मारा है।
कि, मिट्टी का शरीर है,
मिट्टी में ही मिल जाना है।
जब तक शरीर में आत्मा है,
दुनिया में परमात्मा है।
एक जवाब तो जानना है।
आखिर लोगों के दिलों में
क्यों मर गई संवेदना है????