कुछ दबा हुआ याद आया
कुछ दबा हुआ याद आया
आज फिर से दिल ने दस्तक दी
यादों को फिर किसी ने जगा दिया
दिल फिर सहमा सहमा सा है
जाने क्यों कुछ दबा हुआ याद आया
एहसासों में है मची खलबली
अरमानों का है सैलाब आया
पतझड़ के पत्तों की तरह
सपनों को फिर कोई जगा आया
यह क्या! जिन ख्वाहिशों को
मैंने खुद ही था कफन ओढ़ाया
मुड़कर उन्हीं ख्वाहिशों ने
एक इल्ज़ाम तले फिर दबाया
छुपा रखे थे वो अश्क मैंने
ज़माने ने जिन पर था हिसाब लगाया
मैंने नफा-नुकसान न सीखा था
इसलिए पाया कम ज़्यादा गवाया
मलाल नहीं ज़माने की रंजिश का
ज़िन्दगी में जो पाया, बस पाया
पर रिवायतों से न आज़ाद हुई
बेड़ियों ने हर बार बहुत तड़पाया
यह बेड़ियां तब भी थी मौजूद
जब मेरी मासूमियत को था झुलसाया
वक्त न जाने कहाँ ठहर गया था
जब मेरी शख्सियत को औरों ने था दबाया
अभी भी ख्यालातों की कैद में हूँ
चाहतों को न कभी मैने आज़माया
सोचती हूँ ज़ाहिर कैसे करे कोई
वह जज़्बात जिन्हें औरों ने है दबाया
अभी अभी एक दबी आवाज़ ने
मेरे जेहन को थोड़ा थपथपाया
ज़िन्दगी नश्वर है, खुद के लिए भी जी
तेरा वजूद ही है, तेरा असली सरमाया
बस अब पर चाहिए परवाज़ के लिए
नीले आसमान ने भी आज उकसाया
समाज, रिवायतें, बेड़ियाँ, सही है, पर
जीस्त जीने का मकसद अब समझ आया......