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तंगदिल शहर

तंगदिल शहर

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कितना तंगदिल है ये शहर,

अपनी कुशादा सड़कों पे,

मगरूर इतराता हुआ,

देखता है !


ऊंची इमारतों से,

लगता है ये,

अंबर से टकराता हुआ !


कितना तंगदिल है ये शहर,

दो तबके के लोगों में बंटा,

एक गुनाह से कमाता है,

नेक कामों में मिटाने के लिए,

दूजा नेकी से कमाता है,

गुनाहों में लुटाने के लिए !


उफ्फ, बड़ा बदमिज़ाज है,

बड़ा बेहिस है, बदलिहाज़ है !


कितना तंगदिल है ये शहर,

के उजाड़ कर दरख्तों पे,

नन्हें परिंदों के नशेमन को,

बना रहा है 'नकल' महलों की !


नकली नवाबों के लिए,

चुरा के सुबह की खुली धूप,

मिटा के चाँद सितारों के निशां,

बिजली के चिरागों के लिए !


हट, दफ़ा हो जा,

के मौत के रंज को,

ज़िन्दगी की खुशियों को,

समेटने लगा है सेल्फी में !


पूरा खाली है जज़्बातों से,

उलझा है फिरक़े, मज़हब,

जात, पात और रंग के सवालातों से !


ना जाने चल पड़ा है किस डगर,

वाक़ई,

कितना तंगदिल है ये शहर !


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