जज़्बा ए उन्स और दिसंबर..
जज़्बा ए उन्स और दिसंबर..


"आखिरी हफ्ता है दिसंबर का...
याद आने लगे हो फिर से तुम...
ठंडी रातें उनींदापन है कुछ...
थोड़ी तबियत भी हो गई गुमसुम..
आज निकला था मैं वही से फिर...
आखरी बार जहाँ पर मिले थे हम दोनों...
यूँ ही चेहरे पे एक हंसी उभरी ...
और अफ़सुर्दा हो गई खुद ही ...
चाय के ठेले, वो दरख़्त अब भी वैसे ही हैं...
तुम्हारी चाट की दुकान भी वहीँ पर है...
आज भी देखा के कुछ नौजवान वजूद..
कैसे खुश थे, कितने बेफिक्र एक दूजे में...
जैसे हम भी थे कभी....
तुमको ऐतराज़ तो नहीं जो मैंने 'हम' ये कहा...
क्यूंकि अब सिर्फ तुम और मैं ही रह गए हैं यहाँ...
खैर वो बात जो निकली थी, पूरी करने दो..
वर्ना बातों में बात पूरी न हो पायेगी ....
एक कहानी है अधूरी पहले से...
दूसरी आज फिर रह जाएगी...
तो याद आया मुझे वो तेरा सरापा फिर से..
तेरी हर ज़िद, तेरा रोना, तेरा हसना...
तेरी ख़ामोशी, गर्मजोशी
कभी संजीदा, कभी मदहोशी...
चाय के प्याले वो रुमाल से पकड़ना तेरे
गोलगप्पो की मिर्च से उठी सिसकी तेरी...
हुंह, नाक बह जाती थी और लाल भी पड़ जाती थी
जब तू बे बात किसी बात पे अड़ जाती थी...
और फिर रूठने पे शर्तें लगाना तेरा..
याद आता है बहुत मुझको मनाना तेरा..
मेरी सिगरेट जो नापसंद बहुत थी तुझको.
मेरी बढ़ती हुई दाढ़ी पसंद थी तुझको...
कितनी बातें थी तेरी, कितनी सहेलियां थी तेरी...
हर एक लम्हे नयी सब पहेलियाँ थी तेरी..
नोकिया के वो फ़ोन और रात के मैसेज,
बात से पहले ख़त्म होते थे, वो रात के पैकेज..
बातें भी तो थी बहुत...वक़्त भी था..
जोश भी था...खैर...
जानता हूँ , मुझे ये याद भी है..
अब ये सब
बातें हैं, कुछ क़िस्से हैं...
कुछ यादें हैं..और तो कुछ भी नहीं...
कैसी थी शाम वो जब तू ने कहा था मुझसे...
देखो 'नाज़िम' के अब साथ न चल पाएंगे...
ख्वाब जो हमने साथ देखे हैं..
सुबह की धूप में जल जाएंगे...
देखो 'नाज़िम'... ये कह के तूने हाथ पकड़ा था...
जाने क्या क़ैद थी, किस ग़म ने तुझे जकड़ा था ...
मैं तो आवारा था, आज़ाद था, बंजारा था...
लगता था तुझको बिछड़ने दर्द सारा था...
आँसुओं से थी वो लबरेज़ निगाहें तेरी...
कँपकँपाती हुई वो मरमरी बाँहें तेरी...
और ये कह के तूने हाथ छुड़ाया मुझसे...
ध्यान रखना तुम्हारा और भूल जाना मुझे...
मैं खड़ा ही रहा और तू ने राह ली अपनी...
जाने क्या फिर हुआ, और तूने पास में आकर...
मेरे सीने से लिपटते हुए..
कुछ सूखे आंसू गिरा दिए फिर से...
जैसे तुझसे भी न बर्दाश्त हुआ...
हादसा ये जुदाई का जो अपने साथ हुआ...
मैंने भी होठ अपने तेरी जबीं पर रखे..
एक बोसा दिया और हाथ को सर पर रखा..
तेरे दिल में जो था वो सब तो कह दिया तू ने...
मैं अपने आँसू, सभी, दिल में साथ ले आया...
वही मंज़र मेरी आँखों में आज गुज़रा है...
वही एक सूखा आंसू, आँखों से आज उतरा है ..
ये दिसंबर क्यों हर एक साल चला आता है...
बांके बर्बादी, एक बवाल चला आता है...
कब तलक अपनी करवटों को और बहलाऊँ...
कब तलक अपनी रग़बतों को और झूठलाऊँ...
ख़ैर...
अब न लिख पाउँगा मैं और फ़साना अपना...
अपनी अपनी जगह है अब तो ठिकाना अपना...
तू भी खुश रह के मैं भी हूँ मसरूफ बहुत...
फिर भी उठती है मेरे दिल में कोई हुक बहुत...
आखिर....
जज़्बा ए उन्स का पहला क़रार तू ही था...
न मिला तो क्या सही पहला प्यार तू ही था..."