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Nazim Ali (Eʁʁoʁ)

Tragedy

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Nazim Ali (Eʁʁoʁ)

Tragedy

ख़ामोशी का शोर

ख़ामोशी का शोर

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"ये क्या चलन है जो रुका है सब

ये कैसा शोर है खामोशी का

ये क्या तमाशा है शहर भर में

जिसका कोई तमाशबीन नहीं 


हां, ये जो सब असीर है घर में 

क्यों है फैला ये ख़ौफ़ का मंज़र

हर एक ख़ुद से ही मश्कूक है क्यूँ

तुझे, मुझे, उसे, हमें यक़ीन नहीं


नज़र भी आता नहीं कौन है ये

ना हिन्दू है ना मुसलमान है ये 

फिर ये क्या बात है बता तो ज़रा

क्यूँ किसी को यहां तस्कीन नहीं 


मस्जिदें सूनी हैं सब और हैं मन्दिर ख़ाली

ना सवाली हैं ना कारें हैं वो महंगी वाली 

ये हवा अपने साथ कैसी वबा लायी है

मैयतों की भी जिसमें कोई तदफ़ीन नहीं


ये सारा हाल बयां करता है ख़ता तेरी 

हो के इंसान थी इंसान से क़ता तेरी 

सरहदों में बटी रंजिश भी कह रही है अब

कोई अमरीका नहीं, हिन्द नहीं, चीन नहीं "



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