हम देख रहे हैं
हम देख रहे हैं
"लाज़िम है के हम भी देखेंगे
ये उसने कहा था मैंने नहीं,
जब उसने भी ये देखा था
जो देख रहे हैं हम और तुम,
जब उसने भी ये देखा था
के मसनद पे फ़ाइज़ चेहरे,
होंठो पे लगा कर ज़ंजीरें
लहरा के अना की शमशीरें,
नफ़रत की सुना के तक़रीरें
ख़ूंरेज़ बनाते थे मंज़र,
रूहों में चुभाते थे नश्तर,
महकूम के सर पर पांव रखे
खुद को थे समझते बालातर,
जब उसने भी ये देखा था
जब दाना सब थे ज़ुल्मत में,
या क़ैद थे या थे ख़ल्वत में
आइन था मुल्क का दहशत में,
अरबाब ए हकम थे ग़फ़लत में
वो बेच दें मुल्क को जो हो नफ़ा,
सच बोलने से होते थे ख़फ़ा
सब अहल ए दर्द थे अहल ए जफ़ा,
बस अहल ए जब्र थे अहल ए वफ़ा
जब उसने भी ये देखा था।
तो !!!
तो उसने दुआ की रब से फिर
सब जिसको समझते थे काफ़िर,
जब हाय ये दिल से चलती है
हुक्काम के तख़्त मसलती है,
तालीमी इदारों से होकर
गलियों - कूचों में निकलती है,
तब जाके बात संभलती है
और ज़ुल्म की बर्फ़ पिघलती है।
तो
हम भी हैं वही सब देख रहे
बस मुल्क अलग,पहचान अलग,
वहां रंग था 'अल्लाह वालों' का
यहाँ रंग अलग , यहाँ नाम अलग,
कुछ यकसां है तो रंग ए लहू
जब भी ज़ाहिर हो, लाल ही है,
सच दोनों तरफ पामाल ही है
बाक़ी सब तो अक़वाल ही हैं,
तो क्यों न कहें हम देखेंगे ।
के ,
जम्हूर है तो आबाद है तू
मत भूल के मेरे बाद है तू,
ये तख़्त तेरे, ये ताज तेरे
महसूल के हैं मोहताज मेरे,
है अब भी वक़्त रुजू कर ले
तरमीम तू हुक्म ए जुनूँ कर ले,
कहीं फिर से देर न हो जाये
कहीं फिर तू ज़ेर न हो जाए ।
