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तलाक

तलाक

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तुम तीन बार बोल दिये तो क्या ?

मुझे तो बोलना नहीं था

न सुनने थे,


वो तीन शब्द

तीक्ष्ण कटार जैसे

मगर तुमने बोल दिये

कितनी सहजता से,


सोने की तराजू था

तुम्हारे पास

इसलिए तो बना दिया

झूठ को भी भारी।


कुछ चतुर लोग

सड़क के दोनों तरफ

अनिश्चित मुहूर्त के

संतुलन को,


खींचते-खींचते

तोड़ नहीं दिये

क्या नाज़ुक डोर को ?


अंधेरे का परिचय कराने

काश ! कोई परिमापक मिल जाता

उबड खाबड़ रास्ते पार करने,


और कमर में लपेटे

दो नन्हें हाथों की

उपेक्षा नहीं करनी पड़ती


तुम से ज़रा सा भी

उजाला नहीं मिला

फिर भी जल गया

मेरा आशियाना,


वो पीपल के पेड़ से

आने वाले दृष्टि

वापस लौट गई है,


अब कुछ अनुराग को

संभाल कर रखने की

जगह कहाँ है ?


जाओ मैं भी वापस दे दिया

सिर्फ तुम्हारे लिए

स्पटिक के उन तीन शब्दों को,


मेरी स्मृति में

फैले हुए तुम्हारे एहसास को

वही व्यंजन वर्ण के स्पर्श को

कुछ न पाने के अनुभव को।


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