"माँ की उंगली
"माँ की उंगली
मैं 'कुछ' को तलाशती रहती
विश्वास था कि ढूंढ लुंगी
निकल गई बाजा़र
पगडंडी में , टेढ़ी मेढी चाल
मुझे एक उंगली दिखाई दी
मैंने उंगली पकड़ ली
और चल दिए
एक कोमल स्वर
"देखो यही था
कभी हमारा आशियाना,
अरे ! देख कर चलो
यहांँ ज़मीन पर बड़ी सी दरार"
मैं सहम कर लिपट गई उन से
वे मेरे माथे को सहलाएँ
अपनी बाएंँ तरफ इशारा किया
मैंने देखा बाजा़र में बिकते थे
बोतल में बादल
टिफिन में पहाड़
महँगी थी नदियाँ
खत्म हो गई थी खुशियाँ
सुकुन तो कहीं मुडा पड़ा था
पगडंडी धीरे धीरे खो रही थी
मुझे वो सब चाहिए था
छटपटाई मैं
इधर भागी.....उधर भागी
साँस अटकी
पत्थर की इमारतों में
तभी कॉलिंग बेल बजा
नींद खुली
दरवाजे पर माँ थी
मैंने उनकी उंगली पकड़ ली
मेरी मुट्ठी में आसमान था
धरती थी और
मेरा वजुद भी।