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Paramita Sarangi

Abstract

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Paramita Sarangi

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शेष पृष्ठ

शेष पृष्ठ

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241



उस दिन घडी थी पापा के हाथ में

और वक्त था मेरे साथ

पता नहीं कहाँ.... कैसे गुम गए

वो घड़ी... और...वो वक्त

कहीं मैं ठगी तो नहीं गई ?

कीचड़ से भरा मुहूर्त

थोप गया है 

पलकों के पीछे

देखो तो !

हड़प्पा की उस नर्तकी को

आज़ भी खडी है वो

वैसे ही......


आरंभ और अंतिम पृष्ठ

भरकर भेजा है उसने

बाकि पृष्ठा.......

उस पतली डोर को लांघकर

सचमुच कोई भर सकता है करता

उस बाकी पृष्ठा को ?

पूजाघर में जलता हुआ दिया भी

देखने लगा है पूरब की ओर


अब ना दिन ..ना रात...

मेरी आत्मा को खींच रहा है कोई

मेरी साँस को मेरे देह से

धूप जैसा कुछ आ रहा है

बंद झरोखे की ओट से

उस थोड़े से उजाले में

ले जा रही हूं मैं

कुछ न कर पाने की

मेरी अयोग्यता को

कितने शब्दों के साथ


मुझे जाना है

जाना तो पडेगा

'हाँ' या 'ना'

कौन पूछ रहा है ?

खत्म हो रही है अवधि

धीरे-धीरे ,ये देखो,

अलार्म भी बजने लगा है।


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