"असहायता"
"असहायता"
उमर की चौखट के
उस तरफ खड़े हो तुम
अपनी काया विस्तार कर।
इस तरफ़ असहाय
खड़ी है जिंदगी
अकेले पन के बोझ के तले।
निष्ठुर है ये माया नगरी
हाथ बढ़ाकर भी
सहारा कहाँ देती है
दूर क्षितिज से
धक्का मारकर आ जाती हैं
स्मृतियाँ जेहन में,
बेसुरी हो जाती है
ध्वनि वीणा की ।
ये कैसा पड़ाव है जीवन का
आत्मा को मिले दर्द
हर साँस पे समझौता,
सही ग़लत को नापते नापते
निकल गया है वक्त।,
खुद को साबित करते करते
हार गयी है दृढ़ता
रास्ता ही तो नहीं था
शायद इसलिए
व्यर्थ हो गया चलना।