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Paramita Sarangi

Tragedy

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Paramita Sarangi

Tragedy

"तन्हा शाम"

"तन्हा शाम"

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ये कैसा भुताणु है, जिस से

हर सुबह डरी हुई है

हर शाम तनहा है

सोता देह मेरा इस घर में

आत्मा तो दुसरे सहर में है


ये कैसी चादर फैली है, इस से

समाज शब्द विहिन है

सपने सारे खंडहर में दफन हैं

मिलने की तड़प है,मगर

निश्वास पर विश्वास कहां है, 

बेचैन दिल कितना बेबस है


एक वह दिन था जब

कोई भी न रोकता था

कोई भी न टोकता था

दोस्तों से बेधड़क मिलकर

हर कोई तो बोलता था


ये कैसा आलम है, अब

हर कोई अवाक है

दोस्त सभी खामोश है

आसमान के परे 

क्या कोई देवता नाराज़ हैं?


ये तो कोरोना का कहर है ,और

इस घर से हमें उभरना है

इस डर से हमें उभरना है।



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