स्वप्न
स्वप्न
इन नयनों के अश्रु संग
बह गया वो सपना
प्रति श्वास के साथ एहसास,कि
यहाँ था कोई अपना
विश्व की ओछी मानसिकता में
बार-बार फँस जाती हूँ
विचलित बौराती पर
प्रिय!कहीं तुम्हे ना पाती हूँ
क्यूँ कल्पना करती बार-बार
तुम संग आशीर्वाद पाने को
अपनी लकीरे मिलती नहीं,साथी!
आतुर हूँ वाद-विवाद बढ़ाने को
श्रम ही श्रम करती जाती हूँ
फिर भी चाहते बदल रही नित आहों में
स्वप्न-धर्म से बाधित हो,चाहूँ लूँ
अब अंतिम-निंद्रा तुम्हारी ही बाहों में।