मन हल्का सा भारी बोझ
मन हल्का सा भारी बोझ
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एक पत्ता था मैं सूखा सा,
बस टूट अभी गिर रहा था मैं।
फिर बही कहीं से ठंडी हवा,
उस हवा में उड़ने लगा था मैं।
आकाश का थोडा नील चुराया,
धरा की थोड़ी हरियाली।
कोयल को भी गीत सुनाया,
नाच मोर को दी ताली।
उस तेज़ हवा में पूर्ण विलीन,
था स्वच्छ उन्माद उल्लास उमंग।
मन में लिए वो प्रणय नवीन,
थी विरल विचित्र विस्मित तरंग।
सहसा वेग शिथिल हुआ,
लगा, हवा कुछ हिचकिचाई।
पत्ता मैं भूमि पर आया,
स्थिति ये जाने क्यों आई।
हवा कुछ हल्की तीव्र हुई,
मैं मन ही मन हर्षाया।
वो शीघ्र शिखर से गुज़र गयी,
पर मैं पर्वत से टकराया।
अब बस और नहीं है उड़ना,
न करूँगा किसी हवा की खोज।
थक गया हूँ मै, उस से कहना,
है मन हल्का सा भारी बोझ।