स्वार्थ के पंख
स्वार्थ के पंख
स्वार्थ के पंख लगाकर
वो उडता रहा वो उडता रहा
नहीं की परवाह उसने
अपनो की ना ही उनके सपनों की
इस कदर रौंद दिए उन ख्वाहिशों को
जैसे कोई वास्ता ही नहीं हो
अंहकार के महल रहकर
वो भूल गया इस कदर
वो सुख के लम्हे हासिल है जो उसे
किसी अपने के ही दिए तोहफे है
