स्वाभिमानी
स्वाभिमानी
ये दुर्भाग्य ही है कि
किसी इंसान की
तथाकथित ज़िंदगी
बहती नदी के
दो पार-सा
बेलगाम दूरियों में
बंटता ही चला जाता है...
उस इंसान की
जीवनदशा का एहसास
उससे बेहतर
और कौन कर सकता है...!
हम अपने
परिवार को जोड़कर ही
इस समाज को
जोड़ने का ख्वाब
देख सकते हैं...
मगर दुर्भाग्यवश
कोई इंसान जब
अपनी पारिवारिक स्थिति को
बेशक़ 'ग़ैरज़रूरी तौर पर
पीछे छोड़कर'
तथाकथित समाज-निर्माण को
ज़्यादा तवज्जो देने की
'बेवकूफी' कर बैठता है,
तब उसका पूरा खामियाज़ा
'उसे ही' भुगतना पड़ता है...!!!
ये कोई माने या न माने,
मगर यही एक
'कड़वा सच' है
जो रह-रह कर
'उस बेवकूफ' इंसान को
अपनी बेलगाम ज़िन्दगी का
'एहसास' दिलाता रहता है
और कहता है - "उठो ! जागो !
थोड़ा अपने लिए भी
चिंतन शुरू करो...!!!"
हाँ, कभी भी
(किसी भी सूरत-ए-हाल' में)
अपनी हालात को
फूटबॉल का मैदान
न बना डालना
कि जिसे जब 'मर्ज़ी हो',
आदतन 'किक' मारकर
'गोल' करने का
पुराना शौक पूरा करता फिरे...
जो लोग खुशक़िस्मत होते हैं,
उनके सितारे तो
ऊँचे आसमां पर
चमका करते हैं,
उन्हें इस ज़मीन पर
वक्त की 'बेरहम' धूल चटते
किसी (चोट खाए) 'सच्चे' इंसान की
व्यक्तिगत ज़िन्दगी से
'क्या' मतलब...!!!
इसलिए मजबूरन
उस 'स्वाभिमानी' इंसान के पास
अपनी कलम और
सोच की 'धार' के सिवा
और कुछ नहीं होता,
तभी तो हर एक
'ईमान-का-पक्का',
स्वाभिमानी,
'वक्त-का-मारा'
निहत्था इंसान
अपने 'अंतर्द्वंद्व को ही
विद्रोह की दावानल बनाकर
अपनी 'रक्षा हेतु'
स्वयं ही युद्ध की
तैयारी शुरू करता है...!!!
