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Vivek Mishra

Tragedy

4.0  

Vivek Mishra

Tragedy

सुकून है

सुकून है

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सुकून है कि उसे कुछ आराम तो मिला।

बड़ी बेसब्र आँखों से देखती थी मुझे 

कि जैसे मैं किसी दरिया का मालिक

और वो रोज़ की प्यासी नहर हो ।


कहने को क्या थी मगर जान से कमतर न थी

उसकी आँखें ही बोलती थी।

अब जरा सी उम्र में उस से कितनी उम्मीद रखता ।

वो जो कहती थी वो ही समझती थी

मैं भी कभी बता न सका, बस 

दबे पांव कमरे में जाकर उसे 

लिहाफ में महफूज़ कर आता था

मेरे हिस्से का बड़ा सुकून रहता था उसके माथे पर

चुरा लेता था अपने होठों से उस जब वो सो जाती थी।


आँखे आज के दौर में कहा सच कहती हैं वर्ना

एक गवाही उनकी भी बनती थी

हवा के झौके अक्सर धूल का गुबार लाते हैं 

तुम्हारी तस्वीर से उसे हटाते हुए यही सोचता हूँ। 


क्या मेरे गुनाह ऐसे थे कि तुम यूँ छिन गयी मुझसे 

य़ा फिर उसके हिसाब मे कुछ गडबड़ी थी।


पर सुकून है उसे कुछ आराम तो मिला।



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