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Vivek Mishra

Abstract

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Vivek Mishra

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अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता

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अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,

लफ़्ज़ों की कश्ती अब बहाना नहीं चाहता।

जज़्बात जो दिल में दबे हैं कहीं,

उन्हें अब किसी से बताना नहीं चाहता।


खामोशियों में ही आराम है आजकल,

शोर का कोई सिलसिला सजाना नहीं चाहता।

हर बात को समझे बिना जो सवाल करें,

उन सवालों का कोई जवाब देना नहीं चाहता।


अब ख़ुद से मिलकर समझूँगा हालात,

किसी और को अपना फसाना बनाना नहीं चाहता।

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,

खुद को ही सुनना और समझाना नहीं चाहता।


अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता


अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,

लबों को खामोशी का मरहम पहनाना नहीं चाहता

जो ग़म हैं, वो खुद से ही सह लूँगा,

भीड़ में अपना दर्द अब जताना नहीं चाहता।


हवा से बातें, बारिशों से गुफ्तगू,

इन फ़िज़ाओं से अपना रिश्ता बनाना नहीं चाहता

लफ़्ज़ जो बोझिल हों, वो छोड़ दिए हैं,

अब दिल के एहसासों को सजाना नहीं चाहता।


दुनिया की सुनने से थक गया हूँ,

अब अपनी रूह को सुनाना नहीं चाहता।

गहराई में उतर कर समझूँगा खुद को,

ऊपर से बस दिखावा करना नहीं चाहता।


अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,

सुकून की चादर ओढ़कर बस जीना चाहता।


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