तुम्हारे जाने के बाद ,
तुम्हारे जाने के बाद ,
तुम्हारे जाने के बाद ऐसा नहीं
कि बहुत कुछ बदल गया हो।
हर रंग, हर जुस्तजू, हर मुस्कुराहट में
मुझे वही खुशबू मिलती है,
जो पहले थी। मैं वैसा ही हूँ जैसा पहले था।
मैं पहले की तरह सुबह जल्दी उठ जाता हूँ।
टहलता हूँ थोड़ी देर बालकनी में,
जहाँ हवा तुम्हारी आवाज़ सी लगती है,
और सूरज की पहली किरण
तुम्हारी हंसी की चमक से जगमगाती है।
तरोताजा हो ताज़गी को चाय की प्याली पकड़ता हूँ,
लेकिन उसमें अब वो मिठास नहीं
जो तुम्हारी बातों से घुल जाया करती थी।
तुम तो जानती हो बंदगी में मेरा दिल नहीं लगता।
हर दुआ अधूरी सी लगती है,
जैसे तुम्हारे बिना ये लफ़्ज़ भी
अपने मायने खो बैठे हों।
मेरी बनती नहीं है कुदरती खेलों की इन बनावटों से,
जो तुमसे पहले एक कविता सी लगती थी।
अब सब मदारी के खेल सा लगता है,
जहाँ हर पल, हर कोशिश
एक बंदर सा सलाम करते-करते
उम्र के कटोरे में चार पैसे जमा करता है।
लिखने लग जाता हूँ खाली वक्त में।
कभी शब्द तुम्हारी यादों को पकड़ने की कोशिश करते हैं,
तो कभी पन्नों पर बस सन्नाटा उतर आता है।
तुम्हारे जाने में ये तो हुआ है कि
हर बार तुम्हें एक नया हुनर तलाश है मुझमें।
कभी अपनी ग़ज़लों में तुम्हारी परछाईं खोजता हूँ,
तो कभी लफ़्ज़ों में तुम्हारी आँखों की गहराई।
थोड़ा मिज़ाज़ शायराना सा हो गया है आजकल,
हर ख्याल अब एक शेर में ढलने लगा है।
पर हर शेर का मक्ता बस तुम्हारे नाम पर रुक जाता है,
जैसे कोई काफिया अपनी तक़दीर तुम्हारे साथ बाँध चुका हो।
और मैं, तुम्हारे लौटने की उम्मीद में,
हर पन्ने को एक नया मौसम समझ कर
तुम्हारी यादों से रंगता चला जाता हूँ।

