सुबह का भुला
सुबह का भुला
सुनी चकाचौंध जब शहर की,
मेरा मन भी खूब ललचाया था।
छोड़ गाँव की उन गलियों को,
सरपट शहर को भाग आया था।
नभ को छूती ऊँची बिल्डिंगें,
देखकर बड़ा अच्छा लगता था।
सपने सुनहरे सजा कर दिल में,
देर रात तक मैं रहता जगता था।
देखा जाकर जब शहर में मैंने,
तो चारों तरफ भागमभाग थी।
परायों की तो मैं क्या बात करूँ,
अपनों के ही दिल में आग थी।
भाग-भाग दिन भर मैं भी मित्रों,
एक मशीन बन कर रह गया ।
रिश्ते नाते तो कब के छूट गए,
महल सपनों का भी ढह गया ।
चैन-ओ-सुकून की खातिर मैं,
गली-गली अहर्निश घूमा था।
लौट आया हूँ अब गाँव अपने,
क्योंकि सुबह का मैं भूला था।