स्त्री और सिगरेट
स्त्री और सिगरेट
तुम्हारे होंठों के बीच पूरी रात सुलगती रहती हूँ,
ख़त्म हो जाती हूँ जलकर जब,
पैरों तले रौंद दी जाती हूँ।
हर रोज़ एक बुझती है तो,
दूसरी जलती है।
यह क्रम कभी टूटता नहीं,
मैं दहलीज के भीतर भी जलती हूँ,
और दहलीज पार भी सुलगती हूँ।
मुझसे बेहतर तो तुम्हारी यह सिगरेट है
खुद जलती तो है मगर ,
तुम्हें भी जीने लायक छोड़ती नहीं,
तुम्हारे जिस्म में जहर बन कर दौड़ती है।
और मैं.... मैं सिर्फ जलती हूँ, सुलगती हूँ।
धीरे-धीरे राख बन जाती हूँ और
फिर हमेशा के लिए बुझ जाती हूँ।