सपना जंगल बंदा भूत
सपना जंगल बंदा भूत
**सपना जंगल बंदा भूत**
एक रात मुझे सपना आया,देखा गजब नज़ारा मैं,
कदम कदम पर सपने अन्दर,पाया नया ईशारा मैं।
बहुत ही सुंदर देखा जंगल,अन्दर घोर अँधेरा था,
हम सब में से हर का दावा,ये तो जंगल मेरा था।
झुर्रीदार वृक्ष थे जिनके,पत्ते पीले पड़ गये थे,
गिर गये जो धरती पर पत्ते,वो पत्ते तो सड़ गये थे।
उग रहे थे नये नये पौधे,पुराने यूँ कर लुप्त हुए थे,
नये पुरानों में समझौते,ज्यूँ कर कोई गुप्त हुए थे।
नाच रहे थे मोर पपीहे,बुलबुल कोयल कूक रही थी,
एक अंधेरी बिल में बैठी,नागिन भी तो शूक रही थी।
बिट बिट ताक रहे थे उल्लू ,हर शाख पे डाला डेरा था,
जंगल चीर निकलनाअब तो,बन गया मकसद मेरा था।
उबड़ खाबड़ टेढ़े मेढ़े, रास्ते भी पथरीले थे,
कहीं उगे थे फूल और कांटे,कहीं रेत के टीले थे।
जंगल के किसी कोने अंदर,भूतों की इक बस्ती में,
खेल कूद रहे थे बच्चे,भूतों के बड़ी मस्ती में।
बच्चे तो बच्चे है अक्सर,फंस जाते परेशानी में,
पीपल पर जा बैठे थे,दो चार भूत निगरानी में।
गुज़रे थे कुछ लोग वहां से,सर्र सर्र कर नंगे पांव,
बेबसआँखे बोझिल मन से,छोड़ चुके थे नगर गाँव।
पीछे पड़े जुनूनी चेहरे,रक्त रंजित तलवारों संग,
सूरत जिनकी बंदों जैसी,थे घातक हथियारों संग।
भाग गये सब घर को डरकर,क्या बच्चे क्या बूढ़े भूत,
सिहर उठे थे तन मन उनके,देखके बंदो की करतूत।
सुना कि जब ये भूतनियों ने,जंगल में घुस आये बंदे,
चेहरों पे छा गयी उदासी,कोई कहे दिन आ गये मंदे।
भूतों ने मिल किया मशबरा,अपनी नस्ल बचाना होगा,
मुश्किल है धरती पे रहना,चलोओर कहीं जाना होगा।
बोली एक भूतनीअब तो,हमको भी कुछ करना होगा,
डरके जीने से तो अच्छा,लड़कर अब तो मरना होगा।
भूतों में से कहा किसी ने,इतना फिक्र क्यूं करते हो,
बंदा तो बंदा है आखिर,बंदे से क्यों डरते हो।
तुम हो कहा बुजुर्ग भूत ने,अक्ल के अंधे धरती पर,
कहाँ बताओ ? बचे है कितने ?असल में बंदे धरती पर।
--एस.दयाल सिंह--