जीवन चक्र
जीवन चक्र


जब मैं छोटा बच्चा था
घर में सबसे अच्छा था।
तुतली-तुतली बोली थी
जिसमें मिश्री घोली थी।
कुछ सालों में बड़ा हो गया
पांव पे अपने खड़ा हो गया।
जब मुझपे आ गई जवानी
करने लगा मैं फिर मनमानी।
मुंह पर आ गई मूंछ औ' दाढ़ी
खुद को समझने लगा खिलाड़ी।
बात-बात पे अड़ने लगा था
मां-बाप से लड़ने लगा था।
मेरे बाबा मजदूरी करते थे
मेरी हर इच्छा पूरी करते थे।
मां चूरी मुझे खिलाती थी
खुद भूखी ही सो जाती थी।
शादी हो गई बीवी आ गई
जीवन फिजा में मस्ती छा गई।
घर आंगन में चीखी किलकारी
सबके मन को लगी प्यारी।
तुतली बोली लगा बोलने
मन के भेद लगा खोलने।
मेरा बच्चा बड़ा हो गया
पांव पे अपने खड़ा हो गया।
बीवी आ गई मस्त हो गया
अपने में ही व्यस्त हो गया।
मेरी शुरू किरकिरी हो गई
घरवाली चिड़चिड़ी हो गई।
घर में होने लगा हंगामा
रोज रोज का यही ड्रामा।
मां-बाप भी छोड़ चुके थे
दुनिया से मुंह मोड़ चुके थे।
किससे अब फ़रियाद मैं करता?
मां-बाप को गर याद न करता?
एक रात सपने में आए
लाड़-प्यार से मुझे समझाए।
मां ने मुझको गले लगाया
बाबा ने मेरा सिर सहलाया।
यही है जीवन चक्र बेटा!
ले लो इससे टक्कर बेटा!
दोनों ने मुझे यूं समझाया
जीने का मुझे ढंग बताया।