दो जून की रोटी
दो जून की रोटी
दो जून की रोटी
क्या क्या खेल खेलाती है
आदमी से जीवन में
क्या क्या नहीं करवाती है
आदमी सारा जीवन
भागता है दौड़ता है
दो जून की रोटी का
तब कहीं जुगाड़ जोड़ता है
दो जून की रोटी
जब
कमानी पड़ती है
दिल के अरमानों की
पहले कब्र
बनानी पड़ती है
दो जून की रोटी
कड़ी मशक्कत भी करवाती है
चोरी डाका भी डलवाती है
दो जून की रोटी
कोई घी शक्कर
से खाता है
कोई सूखी ही
चबाता है
दो जून की रोटी
किसी को बासी ही
नसीब होती है
किसी को नसीब
ही नहीं होती
दो जून की रोटी
देखते ही
उसका
मन भर आता है
जो कई-कई दिन
रोटी के दर्शन ही
नहीं कर पाता है
ऐ! दुनिया के रईसों
मत गिराओ तुम
है जो तुम्हारें पास
बची हुई रोटी
किसी को आसानी से
किसी को मुश्किल से
नसीब होती है
ये दो जून की रोटी।