फसाने रात के
फसाने रात के


कुछ कहे तो कुछ अनकहे से,
फसाने रात के कितने ही रंग दिखाते है,
कहीं खुशी कभी ग़म कहीं दर्द तो कहीं बेचैनी,
कहीं शोर तो कहीं सन्नाटे को खुद में समेटे रहते हैं।
हर किसी के जीवन की हर रात,
केवल सुख के चादर में कहाँ व्यतीत होती है,
कोई सवार रहता यहाँ खूबसूरत ख़्वाबों की तरी में,
तो कोई दर्द की दास्तान खुली पलकों से बयां करती है।
सुख-दुख की बेचैनियाँ अलग-अलग,
किन्तु हर हाल में नींद तो दोनों ही उड़ाती है,
रात की चादर में लिपटे हुए न जाने कितने किस्से,
किसी को करती है बर्बाद तो किसी को आसरा देती है।
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कहीं दर्द भरी सिसकियों की आवाज़,
ख़ामोश स्याह रात में सन्नाटे को चीर जाती है,
तो कहीं खुशियों के आगमन पर यही ख़ामोश रात,
गुनगुनाती है, थिरकती है, जश्न का आगाज़ करती है।
इसी खामोश रात की शरण लेकर ही,
कहीं काले कारनामों को दिया जाता अंजाम,
तो कहीं किसी के अंदर बैठा हुआ रावण निकलकर,
इंसानियत का खून कर इंसानियत को करता है बदनाम।
किसी के लिए बंदिश की जंजीर है रात,
तो किसी के लिए खुले आसमां सी आज़ादी,
कोई सिमट जाता इस रात में तो कोई बिखर जाता,
रात का फ़साना कहे यही जश्न कहीं तो कहीं है बर्बादी।