Ghazal No. 34 गिला क्या ज़माने से फासले का यहाँ त
Ghazal No. 34 गिला क्या ज़माने से फासले का यहाँ त
हाथों की लकीरों पर मुनहसिर(dependent) लोगों के नसीब नहीं होते
जिनके हाथ नहीं होते क्या उनके नसीब नहीं होते
चुपचाप गुज़र जाता हूँ वहाँ से दीदा-ए-तर लिए
कू-ए-यार में मेरे अश्क़ मेरा नक़ीब(proclaimer) नहीं होते
इसी खामोशी में ही बार-हा गूँजती है रूह की आवाज़
अपने अंदर के सन्नाटे हमेशा मुहीब(dreadful) नहीं होते
दर्द में तसल्ली तो देते हैं मगर दर्द की तदबीर(solution) नहीं करते
वो मेरे ख़ैर-ख़्वाह तो हैं पर तबीब(doctor) नहीं होते
गिरो तो पल भर ठहर तो जाते हैं पर उठाने को हाथ नहीं बढ़ाते
रह-ए-मंज़िल में रहबर इतने भी नजीब(generous) नहीं होते
भर जाते हैं ज़ख्म जिनके ग़म के मरहम से मसऊद(lucky)
से मसऊद शख़्स भी उन जैसे खुश-नसीब नहीं होते
गिला क्या ज़माने से फासले का यहाँ
तो अपने भी कभी करीब नहीं होते
जिनके ज़मीर ख़्वाहिशों के यर्ग़माल(hostage) नहीं होते
वो फ़क़ीर होते हैं मगर गरीब नहीं होते
कुछ फासले लाज़िम हैं दस्तूर-ए-शहर में
सब गले मिलने वाले यहाँ हबीब नहीं होते
खिलते हैं फूल ज़ाग़ों(crow) की चीखों को नग़्मा समझ
इसलिए तो गुलशन में अब अंदलीब(Nightingale) नहीं होते
यहाँ तो अपनी निभती नहीं खुद से ही और
उनके ज़माने भर में कोई रकीब नहीं होते