अमर कथा।।
अमर कथा।।


अधीनता मानी
देवताओं की
वे कहलाए यक्ष
स्वीकारी पराधीनता
दिए सुख अबाध
संततियाँ भी
बनी अप्सराएँ
किए मनोरंजन
निरंतर
कहलाए गंधर्व किन्नर
सुशोभित हुए
देवताओं की
अट्टालिकाओं के बाहर
प्रवेश द्वार पर
कभी भीतरी मंडप तले
किंतु
जो थे स्वाभिमानी
स्वतंत्र और समर्थ भी
वे लड़े
देवताओं से
कभी हारे
कभी जीते
पर हार न मानी
कभी मारे गए
तो कभी छले गए
ग़ुलामी नहीं की
देवताओं की
तो कहलाए दैत्य
राक्षस और असुर
अपमानित होते रहे
निरंतर अकारण
जीते रहे कथाओं के
हाशिए पर
अभिशाप की तरह
सदियों से सुन रहे हैं
ये कथाएँ
सदियों तक सुनते रहेंगे
कुछ कथाएँ
इतनी पवित्र
इतनी जीवंत होती हैं
कि ख़त्म होने का
नाम ही नहीं लेतीं।।