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R. B. Maithil

Abstract

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R. B. Maithil

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प्रीति रहस्य

प्रीति रहस्य

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एक कहानी कहता हूँ मैं, समय बचे तो सुन लेना।

रातों को जब नींद न आये, मन करे तो सुन लेना । 

एक बार मैं यूँ बैठा था, मन ही मन कुछ सोच रहा था। 

प्रीति समझने का जिज्ञासु था, अंतरमन से पूछ रहा था। 

आखिर प्रेम का सत्य क्या है, क्या प्रेम का अर्थ है ? 

यदि ये केवल कल्पना है, तो क्या प्रेम करना व्यर्थ है ? 

बिना प्रीति के जी न पाऊं, क्या इतना भी प्रेम

उचित उचित ? 

इसमे कुछ सत्यता भी है, या केवल यह कथित है ? 


ऐसे तीखे प्रश्नों को सुन कर अंतरमन भी डोल पड़ा। 

प्रीति रहस्य समझाने मुझको अंतरमन भी बोल पड़ा।

रे मूढ़! निर्बुद्धि! मूर्ख! अज्ञानी! तू प्रेम को व्यर्थ

समझता है ? 

प्रेम जिसने कर के देखा, वो भी इसे कथित कहता है ? 

अरे! प्रेम सत्य है, प्रेम अटल है, प्रेम सनातन, प्रेम

अमर है। 

प्रेम जीवन में रस देता है, प्रेम बिना जीवन समर है। 

प्रेम से बढ़ कर न कोई पूजा, प्रेम से बड़ा न कोई

कर्म है। 

भगवान भी है प्रेम के भूखे, प्रेम से बड़ा न कोई धर्म है। 

अंतरमन की बातें सुन कर, मैं तनिक चकित हुआ। 

मन के अनुत्तरित प्रश्नों से, पुनः मैं तनिक भ्रमित हुआ। 


कुछ प्रश्नों के उत्तर तो मिल चुके थे, पर, फिर भी

मैं असंतुष्ट था। 

पूछ लिया उन प्रश्नों को भी, जिसे सोच कर मैं रुष्ट था। 

नई पीढ़ी प्रायः फंसती है, झूठे प्रेम के जालों में। 

प्रेम की सभ्यता भूल चुकें सब, नये युगों के कालो में। 

संस्कारों की साँझ ढल गई, छिपी रात अंधियारों में। 

आधुनिकता के नामों पर, अब बिकता है प्रेम बाजारों में। 

पर, कैसी यह आधुनिकता है, कैसी यह अभिलाषा है ? 

अर्थबल पर संबंध टिका है, क्या प्रेम की यही परिभाषा है ?&nbs

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शायद मेरे प्रश्नों को सुन कर, अंतरमन भी दुखित था।

पर उत्तर उसने दिया अवश्य जो देना उसे उचित था। 

कहा, कि प्रेम नहीं है वह, जो बाजारों में बिकता है। 

प्रेम तो ऐसा पुष्प है, जो कण्टकों में भी खिलता है। 

बिकते जिसके देख रहे हो, वास्तव वो प्रणय नहीं है। 

वो तो केवल विनिमय है, इसमे कुछ संशय नहीं है। 

आस्था,निष्टा,त्याग, भरोसा, क्षमा का जिसमें गुण है। 

वास्तव में प्रेमी वही है, जो इन पांचो में निपुण है। 


अंतरमन से उत्तर पाकर, बहुत कुछ मैंने जान लिया। 

तब भी मैं असमंजस में था, पुनः मैं कुछ प्रश्न किया। 

प्रेम का दिखावा करूँ मैं कैसे, क्या प्रेम दिखाई देता है ? 

बातों से कैसे प्रेम करूँ मैं, क्या सुनाई देता है ? 

क्या उसको हम प्रेम कहेंगे, जो मुख की बातों से

निकलता है ? 

या फिर उसको प्रेम कहेंगे, जो निज हृदय में पलता है ? 

क्या प्रेमी केवल वही है, जो प्रेम के लिए लड़ जाता है ? 

तो फिर उस प्रेमी को क्या कहेंगे, जो प्रेम घुट कर मर

जाता है ? 


मेरे अगणित प्रश्नों से, अंतरमन भी अधीर हुआ। 

मन की मेरी जिज्ञासा से, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ।

कहा, कि उचित है जिज्ञासु होना पर, नहीं एक दिन में

ब्रम्ह समझोगे। 

आगे लिए भी प्रश्न बचा लो, क्या आज ही ज्ञान शिखर

पहुँचोगे ?


बहुत हो गए एक दिन में, प्रश्न-उत्तर,अब बंद करो।

कहता हूँ जो अंतिम उत्तर, सुन उसको अब बंद करो।

किसी के हृदय को ठेस न पहुंचे, इसका ध्यान सदा रखना।

बतलाता हूँ जो प्रेम सूत्र मैं, इसको याद सदा रखना।

प्रेम के लिए लड़ने वाला, भले ही प्रेम को पा जाता है। 

पर,प्रेम मे घुट- घुट मरने वाला, वास्तव में प्रेम निभा

जाता है।


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