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R. B. Maithil

Abstract

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R. B. Maithil

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प्रीति

प्रीति

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अब उस भोली लड़की के बिन,जीना भारी लगता है

जिस भोली लड़की का दर्शन, पाने को नयन तरसता है

अब उस भोली लड़की के बिन जीना भारी लगता है॥


शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को, जितना चन्द्र चमकता है

अति चमकीली पूर्णचंद्र से, भी जिसकी सुंदरता है

देख नयन के भोलेपन को, मरना भी भारी लगता है

अब उस भोली लड़की के बिन जीना भारी लगता है॥


मुख पर हँसी देखकर जिसके, वट वृक्ष भी लहराती है

अप्सराएं भी जिनके, सौंदर्य देख लजाती है

जिसके बाहर आ जाने से, दिन में चन्द्र चमकता है

अब उस भोली लड़की के बिन जीना भारी लगता है ॥


केश की कोमलता रेशम सा, काले केश है मेघ समान

कोमल कली सा होठ हैं जिसके, खिले पुष्प सा है मुस्कान

मन गंगाजल सा निर्मल है, चंदन सा देह गमकता है

अब उस भोली लड़की के बिन जीना भारी लगता है॥


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