मान हर स्त्री का....
मान हर स्त्री का....


घर की धुरी बनकर वो
अडिग सदा वह रहती है,
त्याग,समर्पण की मूरत बनकर
तिनका तिनका जोड़ती है।
सुबह की पहली किरण संग
उसका दिन भी खिल जाता ,
सबकी सेवा करना उसको
यही सुकून उसे दिलाता।
खुद के अरमानों की लौ को
उसने धीमे-धीमे बुझा दिया,
बच्चों की खुशियों के खातिर,
अपना हर गम भुला दिया।
चूल्हा, चौका, खेत-खलिहान
हर जगह वो दिख जाती है,
सास-ससुर की सेवा करके,
बेटी सा फर्ज निभाती है।
थकती है टूटती भी है
पर चेहरे पर मुस्कान रखती है,
अपने पथ पर अविरल चलती
दर्द में भी नहीं रुकती है।
संघर्षों की आंधियों में भी
वह दीप जैसे जलती है,
कर्मठ, मेहनती, निष्ठावान,
वह नारी की गाथा लिखती है।
कभी चौखट के भीतर ठहरी
खुद से सदा वो लड़ती है,
हर कसौटी पर खरी उतरकर
अपनी किस्मत वो लिखती है।
वो खुद भूखी सो जाती है
पर घर में चूल्हा जलता है,
उसके हाथों में छाले होते
पर माथा सदा दमकता है।
बेटी, बहन, माँ, सहचरी
हर रूप में वो दिखती है,
इस दुनिया की रीत यही
वह गीत सदा वो लिखती है।
चुप्पी साधे सब सह लेती
सपनों को खुद कुचल देती है,
पर जब उठती है हक की खातिर,
दुनियां को भी पलट देती है।
अब समय है अब युग बदले
उसकी मेहनत का मान करें,
उनके सपनों को पंख देकर
हम नारी का सम्मान करें।