ढलती उम्र में पिता
ढलती उम्र में पिता


ढलती उम्र के साथ अक्सर पिता अब,
बच्चा बन जाना चाहते है,
वो बच्चों से प्रेम पाना चाहते है,
बच्चों जैसी डांट सुनना चाहते है,
अपने हिसाब से अब बेझिझक जीना चाहते है,
उम्मीदों और जिम्मेदारियों में जो दब गई अधूरी,
ख्वाहिशें, खुलकर पूरी करना चाहते,
वो उड़ना चाहते है,
पंख लगाकर जो,
ज़िम्मेदारी में बोझिल हो गए थे,
बैठना चाहते है, बच्चों के पास ,
हाथों में हाथ लेकर,
नाती और पोते के साथ,
कोई सुने उनसे बीते अनुभव की कहानी,
एक था राजा और एक थी रानी,
बनना चाहते हैं नायक अपने ख्यालों में,
दादा और नाना के सुंदर किरदार में,
खाना चाहते है, बच्चों के साथ <
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होटल में नहीं,
घर के किसी आंगन में बैठकर सपरिवार,
आंखें कमज़ोर हो चली है,
लाठी लेकर चलते है ढीली चाल,
लेकिन हौसले बुलंद है ,
फिर भी नासमझ बनना चाहते है,
लगता है पिताजी,
बच्चा बन जाना चाहते है,
हो जाते है कभी कभी जिद्दी,
रूठ जाते हैं कोई बात पर,
कोई उन्हें मनाएं,
लेकिन पिता अब भी अंदर से बहुत,
गंभीर होते है,
चेहरों पर आती झुर्रियां और पीलापन,
बच्चों की कामयाबी से कम हो जाता है,
वो खुशी बांटना चाहते हैं ,
बस पिता बच्चों में बंटना नहीं चाहते,
वो एक करना चाहते हैं, परिवार को
एक छत के नीचे,
उनके जीते।