*पीड़ा भी गुनगुनाती है*
*पीड़ा भी गुनगुनाती है*
सत्य जो दिखा अभी,
मेरे घर से कुछ दूरी पर है,
पहाड़ी पर ,
एक घरौंदा आश्रम
जहां रहते है,
कुछ निशक्तजन,
उन्हीं के बीच से,
सुबह शाम आती ,
एक सुरीली आवाज,
दर्द के तरानों में,
हिलोरे लेती,
ढलता हुआ सूरज,
और पहाड़ी पर,
बैठा वह शख्स,
निष्फिक्र है, दुनिया की,
आवाजाही से,
आसमां की लालिमा को
निहारता हुआ,
खुद से बातें करता,
बीच में डायलॉग कहता
गाता रहता है, सुरीले नगमें
गीत, में ढलकर,
उसकी जिंदगी के,
लम्हे गम और खुशी के साथ,
बिखरते है और फिर,
चुप - सा हो जाता है,
बीच -- बीच में,
शायद समेटता होगा,
अपने जीवन के क्षण,
बेखबर है, वो इस दुनिया से,
गाड़ियों की आवाज से,
जो सरपट दौड़ रही है, सड़क पर,
लेकिन ! वो अनजान है इन सबसे,
पक्षियों के कलरव और लौटती धूप,
के स्वागत में अपने मन का,
आंचल फैलाकर करता,
संध्या का वंदन,
उसके गीतों में छिपा,
प्रकृति का मनोरंजन,
और संसार उस पर,
चाहे जितना भी हंस लें,
पर वो मुग्ध है, अपनी कला में
सुन रहा है ,उसके गीत, सांझ ढले,
धरती का एक - एक कण।