नारी
नारी


विधाता,
जब समेट नहीं पाया...
अपने अंक में....
संसार!
प्रकृति ने
उठा लिए-
सारे भार!!
स्वयं जब दबने लगी....
बिखरने लगी...
स्वयं ही सिहरने लगी....
तब
खुद को कर दिया व्यक्त-
नारी देह में।
फूट पड़ी....
शाखाओं में,
बेटियों में..
माँओं में...
विश्व भर की कलाओं में।
विधाता,
जब पुरुष होता है-
युद्ध करता है!
जब स्त्री होता है-
सृजन करता है!!
पुरुषों के लिए,
देह-एक विभाजन रेखा है!
मैंने नारी को अस्तित्व संभालते देखा है!!