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कुमार अविनाश केसर

Abstract

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कुमार अविनाश केसर

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कौन जाने

कौन जाने

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कृपाकर्म का बदला, दुनिया अहो चुका क्या सकती है !

कौन जाने ! किसके हाथों ? किसकी रोटी पकती है !


भले नृशंसता नाच खड़ी हो चाँदी के चंद सिक्कों पर,

मग़र प्रताप - सा जीवन भी आबाद यहाँ संगीनों पर !

मानसिंह होकर मुहमाँगा दाम मिलेगा तुमको भी,

पर सदियों तक लादे फिरने की हिम्मत है तुझमें भी ?

इन घासों की रोटी के टुकड़ों पर कोई पलती है !

अरे यायावर, धुआँ नहीं यह, कोई लकड़ी जलती है।


तुम्हें हज़ारों सिक्कों से तोले जाते होंगे लेकिन,

तुम पर सब न्योछावर करनेवाले भी

होंगे लेकिन,

मेरी ज़द में आनेवालों के, जरा, हृदय से बात करो,

बैठो, उनसे मेरे बारे में, जाओ, जाकर बात करो,

मेरी हस्ती की चिंगारी उनके भीतर पलती है,

उठे कहीं भी आग मग़र हृदय में उनके जलती है।


छल से बल पाने में, तेरा रखता नहीं कोई सानी,

पता नहीं, तेरे भीतर - क्यों है इतना गंदा पानी?

कहो भला क्या मिलता है दूसरे का गला दबाने में?

मज़ा भला क्यों आता है दूसरों को टाँग अड़ाने में,

मेरे दीपक की बाती सच्चाई के बल जलती है,

हाँ, मेरी दुनिया, मेरी अच्छाई के बल चलती है।


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