ऋषि और हम
ऋषि और हम
हे ऋषि !
तुम गए-
असत् से सत् की ओर !
तम से ज्योति की ओर !
मृत्यु से अमृत की ओर !
हम गए -
सत् से असत् की ओर !
ज्योति से तम की ओर !
अमृत से मृत्यु की ओर !
तुम कितने असभ्य थे !
तुम कितने पौराणिक थे !
तुम कितने बर्बर थे, ऋषि !
तुम कितने अविकसित थे !
हम कितने सभ्य हैं !
देखो न- हवा ही जला डाली।
हम कितने सभ्य हैं !
प्यास बढ़ा ली, पानी सूखा डाला।
हम कितने नवीन हैं -
धरा खोद डाली, नाले पाट डाले।
हम कितने उदार हैं !
हमारा हर काम 'स्वान्तः सुखाय' है।
तुम्हारा हर काम 'परोपकाराय पुण्याय ' था।
हाँ, ऋषि !
हम विकसित हैं -
तुमने नदियों में (किनारे) घर बनाये,
हमने नदियों पर (भर कर) घर बनाये।
