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कुमार अविनाश केसर

Abstract

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कुमार अविनाश केसर

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ऋषि और हम

ऋषि और हम

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हे ऋषि !

तुम गए-

असत् से सत् की ओर !

तम से ज्योति की ओर !

मृत्यु से अमृत की ओर !


हम गए -

सत् से असत् की ओर !

ज्योति से तम की ओर !

अमृत से मृत्यु की ओर !


तुम कितने असभ्य थे !

तुम कितने पौराणिक थे !

तुम कितने बर्बर थे, ऋषि !

तुम कितने अविकसित थे !


हम कितने सभ्य हैं !

देखो न- हवा ही जला डाली।

हम कितने सभ्य हैं !

प्यास बढ़ा ली, पानी सूखा डाला।

हम कितने नवीन हैं -

धरा खोद डाली, नाले पाट डाले।

हम कितने उदार हैं !

हमारा हर काम 'स्वान्तः सुखाय' है।

तुम्हारा हर काम 'परोपकाराय पुण्याय ' था।

हाँ, ऋषि !

हम विकसित हैं -

तुमने नदियों में (किनारे) घर बनाये,

हमने नदियों पर (भर कर) घर बनाये।


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