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Sheetal Jain

Abstract

4.5  

Sheetal Jain

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अवशेष

अवशेष

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खेलने की उम्र में

पहनाकर पायल और चूड़ियाँ 

सिखा रहे मुझे नृत्य

नहीं मेरी इच्छाओं का मूल्य 

बेबस देख रहीं सहेलियाँ।

 

मन क्या मेरा नहीं होता 

आकाश के नीचे स्वच्छंद घुमूँ 

विविध विविध खेल खेलूँ 

 सुंदर सी घाघरा चोली पहन

सहेलियों संग आम तोड़ूँ।


माँ बाबा ने न कुछ पूछा 

ले गए एक दिन मंदिर 

कर दिया मुझे दान

क्या कोई वस्तु मै

जो हो भावनाओं से अंजान।

 

मंदिर ही बन गया घर

 रिश्ते नाते सब पीछे छूटे 

ईश्वर ही आराध्य मेरे 

भक्ति ,समर्पण साधना 

बन गए दोस्त मेरे।

 

नृत्य ,संगीत वाद्य 

सब विधाओं मे पारंगत मै 

बना लिया धीरे-धीरे श्रेष्ठ 

पाओगे मंदिर की दीवारों पर

 आज भी उत्कीर्ण मेरे अवशेष॥


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