सोचती है
सोचती है
कज़ा रोज़ा न हो ये सोचती है
समय वो शाम बेहतर सोचती है,
हमारा फोन जाने पे पहल कर
जह्न में जाने क्या क्या सोचती है,
पहल करती है हकलाते हुए और
हमें लोगों से बेहतर सोचती है,
जह्न चूल्हे पे है और वो है के बस.
जबाँ के ख़म वगैरह सोचती है,
उतारूँ मैं उन्हें इन धड़कनों में
मगर तफ़सील तक वो सोचती है,
गिला कुछ भी नहीं है पर मुझे वो,
अवाख़िर जिन्दगी तक सोचती है।

