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Akhlaque Sahir

Tragedy

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Akhlaque Sahir

Tragedy

नज़्म (मज़दूर)

नज़्म (मज़दूर)

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ये किस के ख़्वाब बुझ रहे

ये कौन शहर जल रहा

जुनूने इंतकाम में लगे हैं

लोग नाम में

दीये की लौ लिये हुए वो

शाम से ही चल रहा

बनाम कुछ नहीं है पर

वो पत्थरों से जब्र कर

निचोड़ कर टटोल कर

हवा को ज़ेरो जब्र कर

वो चल रहा है जल रहा

है मुतमइन नहीं मगर

निकल चुका है राह पर

तपिश को अब्र अब्र कर

सियासतों की भेंट चढ़

वो आजकल पे टल रहा

वो चल रहा है जल रहा-2

मुहाज़िरों के नक्श पर

सरफिरों को जब्र कर

लगे है ताज़ा दम मगर

नज़र है दह्र ओ बाम पर

वो चल रहा है जल रहा

वो चल रहा है जल रहा-3



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