सम्मोहित जनता
सम्मोहित जनता
इस देश का जवान उभरता लहू
सड़कों पर या उबल रहा , या बह रहा है
कुटिल है राजनीति की परंपरा
न जाने किस राह देश जा रहा है
राजनीति खुद लड़ती नही
लड़वाती है मासूम हाथों को
लज्जा परतों में छुप गई है
तोला जा रहा है, अर्थहीन बातों को
लड़वाते हैं समुदायों को
कोशिकाओं में विष भर देते हैं
सत्य रो रहा है पग पग पर
आंखों पर कीचड़ की परतें हैं
विष भरे भाषण, सम्मोहित जनता
सफेद टोपी अड़ी पड़ी है
कित्त जाए यह व्याकुल जनता
जान गले में अटकी हुई है
ज़िम्मेदारी और मंहगाई ने
चैन मानव का छीना है
लालसा के विषैले चक्कर में
धूमिल हुआ पसीना है
नारे बाज़ी, पत्थर बाज़ी
देश का नया आचरण है
गत्तिविधियाँ समझ से बाहर
आना फानी में व्यस्त जन जन है
पुरवाई कुछ ऐसी चले
उड़ा दे नफरत की घटाओं को
सुलझे अंतर्मन की व्याकुलता
परवाज़ से भर दे ख्वाबों को
धर्म, भाषा न आड़े आये
देश हित सबका सपना हो
आज़ादी बड़ी महंगी थी
अब पहचान सिर्फ तिरंगा हो.....