सलाम ना आया
सलाम ना आया
थी गुफ़्तगू एक आने के उसकी
ढल चला आफ़ताब पर पैग़ाम ना आया
चढ़ा था सुरूर मयख़ाने में थे हम
पर सदियों से प्यासों का वो “जाम” ना आया
खड़े थे कुचे में इक झलक ऐ दीदार को
वो आये नज़र मिली पर सलाम ना आया
मिली बदनामियॉं और मिली शोहरतें
पर हसरतों वाला दिली मुकाम ना आया
उसका था शहर और उसकी अदालते
हम हुए हलाक उसे इल्ज़ाम ना आया
“दीप” हुआ बदनाम सारे इस जहाँ में
पर उस बेवफ़ा का कहीं नाम ना आया।

