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जो दौर गवाँए बैठे है

जो दौर गवाँए बैठे है

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थे शौक नये अरमान बहुत

बसते थे दिल में ख्वाब बहुत

बचपन वाले दिनों का

वो इतवार भुलाए बैठे है

आया फिर से याद वही

जो दौर गवाँए बैठे है


कभी कच्चे पक्के रास्तों में

कभी रेल बसो के धक्को में

चार जून की रोटी खातिर

दिन रात भुलाए बैठे है

आया फिर से याद वही

जो दौर गवाँए बैठे है


इस बसते शहर बेगाने में

इन चेहरे सब अनजाने में

वो होली और दिवाली के

त्यौहार भुलाए बैठे है

आया फिर से याद वही

जो दौर गवाँए बैठे है


ना गुजरा वक़्त भी मुड़ता है

ना टुटा दिल भी जुड़ता है

दिए दुनिया के ज़ख्मो पर

मरहम वक़्त की लगाये बैठे है

आया फिर से याद वही

जो दौर गवाँए बैठे है


यहाँ अपने भी बदल जाते

वफादार भी छल जाते

“दीप” बदलती दुनिया से

सब मोह छुटाए बैठे है

आया फिर से याद वही

जो दौर गवाँए बैठे है


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