" सिमटती जिंदगी "
" सिमटती जिंदगी "
.
. आज की हवा ,
बिमारियों से बोझिल है ।
घरों में साॅंसों की
कमी होने लगी है ।
युवा पीढ़ी जद्दोजहद में
लगी हुई है ..........।
नौकरी की भागदौड़
और परिवार की देखभाल ।
पैसों की कीमत तो ,
बढ़ गई है ,इस कदर कि ,
कमाई कितनी भी हो,
कमी निश्चित पड़ती ही है ।
ज़माने के अनुसार ,
चलना तो बनता है।
भाई साथ चले या न चले ,
कर्ज साथ - साथ चलता है।
अजीबोगरीब बिमारियों
और दवाइयों के बीच
ज़िन्दगी डर - डर कर
आगे बढ़ी जा रही है ....
पीछे पलट कर देखो --
न बीमारी के नाम ....
न दवाइयों के दाम का पता,
खाॅंसती, पर हॅंसती ज़िन्दगी।
कमाई थी ,छोटी सी ,
परवरिश संयुक्त परिवार की
होती थी, एक थाली में
खाते थे , आठ हाथ ......।
खेत- खलिहानों में ,
सुबह-शाम की स्वच्छ हवा ,
दोपहर में चमकती ,
चाॅंदी सी खेत ........।
स्वस्थ ज़िन्दगी,
पलती थी ,वहाॅं ......
पड़ोसी भी भाई से
बढ़ कर थे ,जहाॅं .....
आज सिमटती
जा रही है , ज़िन्दगी ...
न भाई को भाई पता ,
न पड़ोसी को पड़ोसी का....
पर्व-त्यौहार का तो
कहना ही क्या ?
छोड़ते जा रहे हैं लोग,
भूलते जा रहे हैं लोग....
आज घरों के भीतर ,
सिमटती जा रही है ज़िन्दगी,
सिमटती जा रही है ,
ज़िन्दगी .............।