सीता
सीता
जनक नंदनी,धरती पुत्री सीता
क्या कहें उसे क्या क्या ना बिता
थी राजकुमारी वो सुकुमारी
पर वन में उसने ज़िंदगी काटी
स्वयंवर में धनुष तोड़कर पराक्रमी राम ने
वीरांगना सीता से ब्याह था रचाया
पर हाय इस ब्याह से सीता ने केवल दुःख ही पाया
जब रानी बनने की बारी आई
तब कैकेयी ने उन्हें वन की राह दिखाई
पति प्रेम फिरती रही वो जंगल जंगल बौराई
और लक्ष्मण के क्रोध की उन्हें ही करनी पड़ी भरपाई
लक्षमण ने शूर्पणखा के नाक को काटा
सीता को लेकर पुष्पविमान में उड़ गया उसका भ्राता
सीता रोती रही पर रावण को तनिक भी दया न आई
ना तोड़ पाया पर रावण सीता के साहस और सहनशीलता को
डटी रही वो अपनी बात पे जैसे कोई अटल शिला हो
राम ने वानर सेना संग मिल के था रावण को मारा
पर असल में रावण पहले दिन से ही था सीता के साहस से हारा
जब लौटीं अयोध्या जनक दुलारी
उनको ही देनी पड़ी अग्निपरीक्षा इसके बाद भी भाई
जग ने हर मोड़ पे स्त्री की ही ली परीक्षा है
स्त्री को माता कहने वालों तुम्हारी ये जाने कैसी बुद्धि
कैसी दोहरी नीति और शिक्षा है
इतने पर भी जग को लाज न आई
दुनियाँ ने बात बात पे सिया पे दोहमत लगाई
गर्भवती पत्नी को वन में भेजने में राम को भी दया न आई?
व्यथित हृदय से चल पड़ी सीता,
वन में अकेले प्रसव की पीड़ा उठाई
पालन पोषण किया स्वयं ही बालकों का
आत्मसम्मान को ना छोड़ा कभी भी।