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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२५४; सयमंतक हरण, शतधनवा का उद्धार और अक्रूर जी को फिर से द्वारका बुलाना

श्रीमद्भागवत -२५४; सयमंतक हरण, शतधनवा का उद्धार और अक्रूर जी को फिर से द्वारका बुलाना

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

यद्यपि भगवान कृष्ण को पता था

कि लाक्षागृह की आग में पांडवों का

बाल भी बाँका नही हुआ।


तथापि जब उन्होंने सुना कि

कुन्ती और पांडव जलकर मर गए

बलराम जी को साथ में लेकर

वे सभी हस्तिनापुर गए।


पितामह, कृपाचार्य, विदुर

गान्धारी और द्रोणाचार्य से

मिलकर, उनके साथ संवेदना

सहानुभूति प्रकट करने लगे।


भगवान के हस्तिनापुर जाने से

अक्रूर, कृतवर्मा को अवसर मिल गया

शतध्वना के पास जाकर फिर

उन्होंने उससे ये कहा।


‘सत्राजित से वह मणि छीन लो

सत्राज़ित ने अपनी कन्या का

विवाह तुमसे करने का वचन दिया

फिर हम लोगों का तिरस्कार किया।


श्री कृष्ण को ब्याह दिया उसको

अब सत्रजित भी अपने

भाई प्रसेन की ही तरह

मरकर यमपुरी में जाए ‘।


शतध्वना पापी तो था ही

मृत्यु भी सिर पर नाच रही उसके

अक्रूर, कृतवर्मा के बहकाने पर

आ गया उनकी बातों में।


उस महादुष्ट ने लोभवश

मार डाला था सत्राजित को

और सयमंतक मणि को लेकर

चंपत हो गया वहाँ से वो।


सत्यभामा ने ये सुना जब

कि मेरे पिता को मार डाला गया

शोक हुआ उन्हें, पिता के शव को

कड़ाहे में तेल के रखवा दिया।


हस्तिनापुर चली गयीं और

सब वृतान्त सुनाया कृष्ण को

यद्यपि इन सब बातों को

पहले से ही जानते थे वो।


परीक्षित, फिर भी ये सुनकर

मनुष्य की सी लीला करते हुए

आँख में आँसू भर लिए

और द्वारका लौट आए वे।


शतधवना को मारने के लिए

और छीनने के लिए मणि उससे

सोच विचार करने लगे और

और भी उद्योग करने लगे।


शतध्वना को जब मालूम हुआ

कि कृष्ण मुझे हैं मारना चाहते

बहुत ही डर गया वो और

अपने प्राण बचाने के लिए।


कृतवर्मा से सहायता माँगी

परन्तु कृतवर्मा ने उससे कहा

‘ कृष्ण, बलराम सर्वशक्तिमान हैं

मैं सामना ना कर सकूँ उनका।


मार डाला था कृष्ण ने

कंस को अनुयायीयों के साथ में

जरासन्ध को सत्रह बार

पराजित किया था उन्होंने ‘।


कृतवर्मा का जवाब सुनकर ये

शतध्वना ने सहायता के लिए

अक्रूर जी से प्रार्थना की

तब अक्रूर जी ने कहा उससे।


‘ भाई, बल, पौरुष भगवान का

जानकर भी कैसे उनसे कोई

वैर विरोध कर सकता है

अद्भुत हैं लीलाएँ उनकी।


सात वर्ष की आयु में ही

गिरिराज उखाड़ लिया उन्होंने

खेल खेल में ही वो विश्व की

रचना, रक्षा, संहार हैं करते।


नमस्कार करूँ उनको मैं

अद्भुत सब कर्म हैं उनके ‘

जवाब पाकर ऐसा अक्रूर से

उस समय फिर शतध्वना ने।


सयमंतकमणि रखी उनके पास में

स्वयं घोड़े पर सवार हो

अपनी जान बचाने के लिए

वहाँ से भाग गया वो।


श्री कृष्ण, बलराम दोनों फिर

रथ पर सवार हो गए

पीछा किया ससुर को मारने वाले

शतध्वना का, उसे मारने के लिए।


मिथिलपुरी के निकट उपवन में

शतध्वना का घोड़ा गिर पड़ा

अब वह उसे वहीं छोड़कर

पैदल ही सरपट भागा था।


अत्यन्त भयभीत हो गया वो

कृष्ण भी उसके पीछे दौड़े

उसका सिर काट लिया था

उन्होंने तब अपने चक्र से।


वस्त्रों में सयमंतकमणि को ढूँढा

परन्तु मणि नहीं मिली वहाँ

बलराम जी के पास आकर फिर

कृष्ण ने उनसे ये कहा।


‘ हमने शतधवना को व्यर्थ ही मारा

सयमंतकमणि तो उसके पास नहीं ‘

बलराम कहें कि शतध्वना ने

किसी और के पास मणि रखी होगी।


द्वारका जाकर तुम पता लगाओ

मिलना चाहता मैं विदेहराज से

क्योंकि मेरे प्रिय मित्र वो

नगर में चले गए ये कह के।


मिथिला नरेश ने स्वागत किया उनका

कई वर्ष मिथिला में ही रहे वो

महाराज जनक ने उनको रखा था

बड़े प्रेम और बड़े सम्मान से।


इसके बाद फिर दुर्योधन ने

गदायुद्ध की शिक्षा ली उनसे

उधर जब कृष्ण द्वारका लौटे

सत्यभामा से कहा उन्होंने।


शतध्वना को तो मार दिया मैंने

पर मणि उसके पास नहीं मिली

सत्राजित के शव की उन्होंने फिर

वैदिक क्रियाएँ करवाईं।


अक्रूर, कृतवर्मा ने शतध्वना को

उत्तेजित किया था इस वध के लिए

शतध्वना को मारा कृष्ण ने

जब ये सुना उन दोनों ने।


अत्यन्त भयभीत होकर फिर दोनो

द्वारका से भाग खड़े हुए

अक्रूर जी जब द्वारका से चले गए

अनिष्ट, अरिष्ट वहाँ होने लगे।


नगर के बड़े बूढ़ों ने कहा

‘एक बार काशी राज्य में

वर्षा नहीं हो रही थी और

सूखा पड़ गया था उसमें।


तब अपने राज्य में आए हुए

अक्रूर के पिता शवफ़लक से

राजा ने पुत्री गांदिनी ब्याह दी

वर्षा हुई तब उस प्रदेश में।


अक्रूर जी शवफ़लक के ही पुत्र हैं

वैसा ही है उनका प्रभाव भी

इसलिए जहां अक्रूर रहते हैं

वहाँ सदा है वर्षा होती।


तथा किसी प्रकार का कष्ट

महामारी आदि उपद्रव नहीं होते

परीक्षित, उन लोगों की बात सुन

भगवान ने फिर ये सोचा कि।


‘ उपद्रव का यही कारण नहीं है

यह जानकर भी भगवान ने

अक्रूर जी को ढूँढवाया और

बातचीत की आने पर उनके।


एक एक संकल्प देखते रहते

परीक्षित, भगवान सबके चित का

इसलिए उन्होंने मुस्कुराते हुए

अक्रूर जी से ऐसा कहा था।


‘ चाचा जी , आप ज्ञान, धर्म के पालक

हमें मालूम था ये पहले ही

कि शतध्वना छोड़  गया है

आप के घर पर सयमंतक मणि।


जानते आप कि सत्राजित के

कोई भी पुत्र नहीं है

इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से

सत्यभामा जो उसकी लड़की है।


उसके लड़के, सत्राजित के नाती ही

तिलांजली, पिण्डदान करके उसका

उसका ऋण चुकाएंगे और

उत्तराधिकारी होंगे, जो है उसका।


इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से ये मणि

हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए

तथापि ये सयमंतक मणि

आप अपने पास ही रखिए।


क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ट हैं

पवित्रआत्मा हैं बड़े ही

और किसी दूसरे के लिए

ये मणि रखना है कठिन भी।


परन्तु हमारे सामने एक ये

बहुत बड़ी कठिनाई आ रही

मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का

विश्वास नहीं करते बलराम जी।


उनका, सत्यभामा और जाम्बवती का

इसलिए आप संदेह दूर करें

सबको ये मणि दिखलाकर

शान्ति का संचार करें हृदय में।


हमें पता है कि मणि के प्रभाव से

आप आजकल जो यज्ञ कर रहे

और सोने की वेदियाँ

बनती हैं जो उन यज्ञों में।


भगवान ने जब ऐसा कहा तो

अक्रूर ने मणि निकाली वस्त्र से

सूर्य समान प्रकाशमान वो मणि

भगवान कृष्ण को दे दी उन्होंने।


जाती भाइयों को दिखाकर वो मणि

भगवान ने अपना कलंक दूर किया

पास रखने में समर्थ होकर भी

उसे अक्रूर को वापिस दे दिया।



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