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शख्शियत

शख्शियत

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ढूँढ रही हूँ कुछ शब्द ऐसे

जो मेरी शख्शियत बयाँ कर सके

कभी लगता है

मैं कुछ चुलबुली मौजी

अल्हड़ थी कभी,


पर अब थोड़ी अधेड़ सी

एक खुली किताब सी हूँ

कोई भी पढ़ सकता है इसे

पन्ने दर पन्ने पलट।


कभी लगता है

मैं एक बुझती हुई शमा हूँ

तेल जिसका चुक गया है

जीने की उमंग की भी

इंतेहा हो रही है,


दुनिया की तेज आँधियों के रूबरू

होने से भी डरने लगी हूंँ

मैं क्या हूँ, कैसी हूँ

कभी अपनी सी लगती हूँ

कभी कुछ गैर सी।


जब खुद को खुद में खोज पाऊँगी

तभी शायद अपने लिए

शब्दों को भी ढूंढ पाऊँगी।।



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