शीर्षक: वह कतरा नदी का
शीर्षक: वह कतरा नदी का
हर कतरा नदी का कभी बिखरा
तो कभी सीमित रहा किनारों में
रवानी उसकी कभी रुकी नहीं
तूफान झेले थे बस इशारों में
चाहत बड़ी थी बड़ा दिखने की
आगोश में समन्दर की समा गया
खुद का वजूद ढूंढने लगा वह जब
हकीकत जानके सकते में आ गया
हुआ था अलग तन वजूद से
नया माहौल बौना कर गया था
एक घुटन सी थी गहराइयों में
प्यास बुझाने कहां वह दरिया था
अपने किनारों को यूं छोड़कर
लहरों में अब था वह समा बैठा
बड़ा बनने की चाह में वह कतरा
अपना सब कुछ लुटा बैठा था
चला था सदियों से जो पाने को
गंवा के सब कुछ वह न पाया
दर्द उसका गुल गया खारे पानी में
फिर भी वह समंदर न शरमाया
चली आ रही है रीत सदियों से
कमज़ोर को और कमज़ोर करो
हर रूप का कोई मकसद तो है
बुलंद अपने अस्तित्व को और करो.....
✍🏼 रतना कौल भारद्वाज ✍🏼
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