अकेले शामियाने
अकेले शामियाने
चंद शामियाने हैं
मेरी जागी हुई आंखों के सामने
मगर मंजर तो कुछ और ही लगता है
ख्वाबों में ताबीर किये महल को
जैसे जाता कोई आशना मगर
मायूस जलसा लगता है।
देखा था हमने
वक्त लिजलिजे सांप सा
सरसराता हुआ निकला है आगे कहीं
चँवर खुशियों का हिलाते
अनजान मन कोई बहका है,
चल अब यहां से आगे को निकलते हैं
उस ओर हम सा कोई अकेला दिखता है।
देखा था हमने
मुस्कराते हुए नम आंखों ने
दूर से लबों को सलाम भेजा है
एक साया सा है जहन में हरदम
जो दिल में झांकता सा चलता है
कहाँ क्यों और किस लिए
सवालों का रेला सा साथ लिए चलता है।
वो मिलेगा कभी
तो हक से पूछेगा वजह
" उसे भूल जाने " की
वजह वो की जिसका रंग भी
हमें "नामालूम" सा पता पड़ता है
यार...क्या कहेंगे उससे हम
इसलिये जी ख्यालों में भी
उस से अमूमन
बचता हुआ फिरता है।
