ग़ज़ल
ग़ज़ल
रो पड़ी ज़िंदगी फिर संवरते हुए
मुस्कुराने लगा था मैं मरते हुए
इश्क़ के रास्ते जाते जन्नत तलक
जाते हैं नर्क से पर गुजरते हुए
फिर न मुकरेंगे वादे से हम आदतन
उसने वादा किया फिर मुकरते हुए
फिर किसी पे न पत्थर चलाए गए
हम ने देखा जो ख़ुद को बिखरते हुए
शक्ल झूठी थी जब तक मेरे साथ था
अस्ल दिखलाई दिल से उतरते हुए.
