सभ्य लोग
सभ्य लोग
वो फटेहाल और बिखरे बाल थी
कचरा बीनते उसके हाथ ठिठक जाते
पल भर को ही सही सहम जाते
जब छाती से लिपटी नन्ही जान
हुमक कर रो उठती
लोग कहते हैं वो पगली है
फुटपाथ उसका ठिकाना है
हाल तो उसका कोई क्या पूछता
हिकारत भरी नजर और कुछ कटु शब्द
बड़ी सदाशयता और खुले मन से
लुटाते थे लोग
वहीं कुछ कामुक और लोलुप निगाहें
तोलतीं थीं उसके उभारों को
और दिन में फटकारने और दुत्कारने वाले
ये सभ्य और समाजी लोग
रात के अंधेरे में
उतार कर अपना सफेद लिबास
उस पगली की दबी घुटी चीखों पर
अपनी मर्दानगी की मोहर लगा
फिर से खड़े होते सीना तान
दिन के उजाले में
इज्जत और संस्कारों की दुहाई देते।।