प्रकृति और स्त्री
प्रकृति और स्त्री
प्रकृति, स्त्री और मां...
सर्वदा देना ही तो सीखा है इन्होंने..
तुम कुल्हाड़ी चलाओ
या फिर शब्दों के बाण..
हंसकर सहन कर जाएंगी..
ये नहीं कि उफ्फ नहीं करेंगी
या दर्द नहीं होगा...
आखिर सजीव हैं..!!
तकलीफ़ भी होगी और पीड़ा भी..
पर..
छलकते अश्रु संभालना जानतीं है वो
दर्द दबा कर मुस्कुराना भी आता है उन्हें
और हर वार के बदले दुआ
दिल इतना ही तो कोमल है इनका...
परंतु हे मानव..
ज़ख्म नासूर बने.. दर्द सैलाब बने..
और अश्रु अंगार बने इनका..
उससे पहले संभल जाना तुम..
खामोश आह तबाही लाती है
इस बात को ना भुलाना तुम..
बहुत कुछ नहीं करना है तुम्हें
बस थोड़ा सा सम्मान देना है..
एक बीज के बदले
प्रकृति ढेरों फल देगी..
और एक मीठे बोल से
स्त्री तुम्हारे घर को
मंदिर बना देगी.....